गरीबी और भूख पर कविता। वो नन्हे से बच्चे।


वो नन्हे से बच्चे


Garibi par kavita

Garibi par kavita

रात के तीसरे पहर तक

जब भूखे पेट ही होते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।


चार दीवारी हैं उनपे ना

छत की कोइ उम्मीद हैं।

हवा के झोंके डंक चुभाये

कुदरत की अपनी जिद्द हैं।


तन ढका ना कपड़ो से

नाही बिस्तर ही होते हैं।

ओस की ठंडी चादर ओढ़

वो फुटपाथ पर सोते हैं।


रात के गहरे सन्नाटे में

जब लोग चैन से सोते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।

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रंग बिरंगे कपड़ो में जब

लोग सामने आते हैं।

मन में दबा के ख्वाहिशें

वो भाग्य पे शरमाते हैं।


आत्मग्लानि के सायें में

दिन रात ही जीते हैं।

तिरस्कार के विष को भी 

वो आय दिन ही पीते हैं।


मन के सब इच्छाओं को

जब आंसुओ से धोते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।


दर दर हाथ फैलाने पर

रोटी नसीब आ जाती हैं।

पड़े न रहना भूखा कल

ये चिंता सताती हैं।


रात के अंधियारे में वो

सबसे छुपाके रखते हैं।

दो टुकड़े ही उसमे से 

कल को बचाके रखते हैं।


वह रोटी के टुकड़े भी

जब सिरहाने से खोते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।


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सामने से इनके रोज

कितने लोग गुजरते हैं।

टकटकी निगाहों से वो

सबको देखा करते हैं।


भागती हुई दुनिया में

कौन यहां उलझता हैं।

वक्त के पाबंदियों में

कौन इन्हे समझता हैं।


कुछ लोग ही इनकी कस्ती

अपने हाथो से डूबोते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।


Baccho par kavita in hindi

Bachho par kavita in hindi


हर हालात से लड़ते हैं

ये बढ़े ही हिम्मत वाले हैं।

दर्द इनका महसूस किया तो

लगा हम किस्मत वाले हैं।


अपनी दशा को लेकर ना

शिकायत जुबां पे आती हैं।

अब तो बड़े बंगले की भी 

फिक्र नहीं सताती हैं।


मुरझाते मन के भीतर

वो स्वप्नबीज जब बोते हैं।

वो नन्हे से बच्चे तब

फूट फूट कर रोते हैं।


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(इस कविता का copyright कराया जा चुका है। इस कविता का मकसद फुटपाथ पर जीवन व्यतीत करने को मजबूर छोटे छोटे मासूम बच्चों के दर्द से आपको अवगत कराना हैं। किसी भी व्यायसायिक कार्य में इसका प्रयोग वर्जित है।)
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कविता का उद्देश्य


ग्लोबल हंगर इंडेक्स के 2020 के आंकड़ो के मुताबिक आज भी विश्व में प्रतिदिन 3000 बच्चों की मृत्यु सिर्फ और सिर्फ भूख के कारण हो जाती हैं। भारत भले ही विकासशील देश से विकसित देश के तरफ काफी तेजी से बढ़ रहा हैं लेकिन भूख के मामलो में आज भी हमारी स्थिति बदतर हैं। भारत में 38 प्रतिशत बच्चे आज भी कुपोषण से ग्रसित होकर जीने को मजबूर हैं।

यह कविता इन्ही बच्चों के दर्द और पीड़ा पे आधारित हैं। अक्सर सड़क पे चलते वक्त हमारी नजर ऐसे बच्चों पे पड़ जाती हैं जो अर्धनग्न कपड़ो में फुटपाथ पर ठिठुरते हुए जीवन जीने को मजबूर हैं। अक्सर ये बच्चे लाल बत्ती होते ही हमारे पास आकर हाथ फैला देते हैं, पेट और मुँह के तरफ इसरा करते हुए कुछ खाने को मांगते हैं और हम ज्यादातर इन्हे डांट कर भगा देते हैं। ये आय दिन हमारे साथ होता हैं लेकिन हम कभी गौर से इन बच्चों को समझने की कोशिश नहीं करते और अपनी गाड़ी से इन्हे साइड करके निकल जाते हैं।

अक्सर मैं भी ऐसा ही करता हुँ लेकिन एक दिन रात को 9 बजे ऑफिस से घर आते वक्त एक ऐसा ही दृश्य मेरे सामने आया तो थोड़ा इन्हे समझने की कोशिश करने लगा। दिसंबर का महीना था ठण्ड अपने जोरो पे थी और सड़क के किनारे फुटपाथ पर ही दो तीन परिवार और उनके कुछ बच्चे खुले आसमान के निचे ही अपना आशियाना लगा रखे थे। यह पीड़ा तो उन परिवार के सभी सदस्य के लिए कष्टदायक हैं किन्तु उन बच्चो के लिए तो अति असहनीय हैं जिनका जीवन अभी शुरू ही हुआ हैं। उन बच्चों का दोष सिर्फ और सिर्फ इतना ही हैं कि उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ हैं।

       


कोइ चार दीवारी नहीं, कोइ छत नहीं, पुरे शरीर पे वस्त्र नहीं, ओढने के लिए फटे हुए कुछ कंबल जिससे आधा ही तन ढकता हो। जरा कल्पना कीजिये कैसे खुले आसमान और ओस के चादर के निचे जहाँ शीतलहर शरीर को जमा देती हो और हवा डंक चुभाती हो उस रात को ये नन्हे से बच्चे कैसे काटते होंगे। भले ही वो ऐसे परिवार में जन्मे हैं लेकिन हैं तो बच्चे ही न। अन्य बच्चों की तरह उनका भी शरीर कोमल ही होगा, उन्हें भी गर्म कपड़ो और मोटे रजाई की जरूरत तो होती होगी न।

ये ठण्ड तो एक तरफ हैं किन्तु इन मासूमों के लिए तो इससे भी बड़ा कष्ट हैं भूख सहन करना। इन बच्चो को शायद ही कभी भर पेट खाना मिलता हैं, नहीं तो ज्यादेतर इनके भूख का निवारण फुट फुट कर रोना ही होता हैं। इन्हे रोकर ही अपनी भूख का निवारण करना पड़ता हैं दूसरा कोइ उपाय ही नहीं होता। कई जगह ये बच्चे हाथ फैलाये तो कुछ खाने को मिल जाता हैं लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं होता और उस अप्रयाप्त भोजन में से ही कल सुबह के लिए भी बचाकर रखना होता क्योंकि सुबह सुबह भूख तो लगेगी परन्तु इतना सुबह रोटी कौन देगा। इस भूख की हद तो तब हो जाती हैं जब वह भोजन भी सिरहाने से चोरी हो जाता हैं और सुबह भी भूखे ही रहना पड़ता हैं।

केवल कुछ मिनट ही इन्हे समझने पर मुझे समझ में आ गया की अपनी जिन्दगी कितनी आसान हैं। हम अपनी समस्याएं को  लेकर शिकायत करते रहते हैं। अपने माँ-बाप, भगवान और अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। लेकिन जब इनके दर्द को महसूस करते हैं तब उसी माँ-बाप और भगवान के लिए मन से धन्यवाद निकलता हैं, मन आदर और सम्मान से भर जाता हैं।  अपने किस्मत पे संतुष्टि व्यक्त करते हुए मन ही मन में भगवान को शुक्रिया कहते हैं। 


ये बच्चे इसी उम्र में हर तरह कि मुसीबत से लड़ते है। गर्मी से, ठण्ड से, बारिस से, भूख से, प्यास से, अपमान से, लोगो के तिरस्कार से लगभग हर तरह के मुसीबत से। इन सब मे सबसे बड़ा हैं लोगो का इनके प्रति तिरस्कार की भावना। हम में से ज्यादातर लोग इनके दर्द को कभी समझने कि कोशिश ही नहीं करते। ये मासूम अक्सर हाथ फैलाये हमारे पास आते हैं और हम रौब झाड़ते हुए इन्हे अपमानित करके भगा देते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि इन्हे कुछ देने से हमारी आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाएगी बल्कि इसलिए क्योंकि दूसरे लोग भी ऐसा ही करते हैं।

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यदि आपने यह कविता और यह लेख यहां तक पढ़ी हैं तो इतना तो पक्का हैं कि आप भी मेरी तरह ही इन मासूम बच्चों को समझने कि कोशिश करने वालो में से हैं। तो आइये अब से एक काम करते हैं कि जब भी कोइ ऐसा बच्चा हमारे पास हाथ फैलाये आये तो उसे कुछ खिलाने का प्रबंध करते हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि उसे पैसा दे उसे खिलाने का प्रबंध करें और यदि खिलाने में किसी भी कारणवश असमर्थ हैं तो कम से कम इन्हे प्यार से दो शब्द बोले और अपमान कभी भी न करें। इन्हे एक बार प्यार से बाबू या बच्चे बोल कर सम्बोधित करे और फिर उनके चेहरे को पढ़ने कि कोशिश करें यकीन मानिये उस बच्चे से ज्यादे खुशी आपको होगी।

उम्मीद करता हूं कि यह कविता पढ़कर फुटपाथ पर जीवन व्यतीत करने वाले बच्चों के प्रति आपके नजरिये में जरुर बदलाव आया होगा। ऐसी और भी कविताएं पढ़ने के लिए आप मेरी वेबसाइट   www.powerfulpoetries.com पर जा सकते है। 

Thank you for reading this

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