Hindi Poem on Poor Beggar
!! बेरंग झूलसा सा चेहरा !!
बेरंग झूलसा सा चेहरा हैं।
हैं आधा तन ही ढका हुआ।
रंगत उसके चेहरे की
हैं झुर्रिया में बटा हुआ।
हाथ फैलाये सड़क किनारे
राम राम वो कहता हैं।
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
अपनी मेहनत की खाता हुँ
बार बार कोई कहता हैं।
किन्तु ये मेहनत कम हैं क्या
जो धूप में बैठा रहता हैं।
फिर तो दो वक्त की रोटी
उसे नसीब न होती हैं।
आय दिन ही जिन्दगी उसकी
आधी पेट ही सोती हैं।
भर पेट भोजन पाने को
उम्मीदों में ही बहता हैं।
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
चलने की हिम्मत हैं उसमे
न उठने की ताकत हैं।
आराम तनिक न मिलता हैं
न जाने कौन सी आफत हैं।
दर्द से कई बिलखता हैं।
पर कौन उसे सहलाता हैं।
पैर उसके भी थकते हैं
किन्तु उन्हें कौन दबाता ।
आराम के इन घड़ियों में
हजारों दुःख वो सहता हैं।
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
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हक हैं उसे न मंदिर जाये
ना मस्जिद जा पाता है।
लाचार हैं ईश्वर को अपनी
धूप में दिन भर जलने की
कीमत उसे न मिलती हैं।
रहमत वाले के दर पर भी
रहमत उसे न मिलती हैं।
करूणानिधि के आगे ही
इंसानों से वो डरता हैं
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
दो कदम उसे चलाने को
ना कोई हाथ बढ़ाता हैं।
वो लड़खड़ाते कदमों से
अकेला बढ़ता जाता हैं।
लाठी एक सहारा थी अब
हाथ से फिसल जाती हैं।
यह जहरीली जिंदगी
कई दास्तां बतलाती हैं।
हैं कितना लाचार वो जो
अंत समय तक लड़ता हैं।
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
कविता का उद्देश्य एवं संक्षिप्त विवरण
बेरंग झूलसा सा चेहरा हैं।
हैं आधा तन ही ढका हुआ।
रंगत उसके चेहरे की
हैं झुर्रिया में बटा हुआ।
हाथ पैसारे सड़क किनारे
राम राम वो कहता हैं।
कौन हैं जो चौराहे पे बैठ
दुआएं देता रहता हैं।
यह कविता हमें उन सभी वृद्ध लाचार लोगो के कष्टकारी जीवन से एक छोटा सा परिचय कराती हैं जो सुख से व्यतीत करने वाले दिन यानि बुढ़ापे के दिन में भी दो वक्त के भोजन के लिए कठिन संघर्ष करते हैं। अक्सर ऐसे लोगो किसी चौराहे पर, मंदिर-मस्जिद के बाहर, या किसी स्टेशन के बाहर बैठे मिल जाते हैं जो सबको दुआएं देते रहते हैं।
कौन लोग हैं ये? शायद ये लोग भी किसी के माता-पिता होंगे, इनके भी कोई सगे समन्धि तो जरुर ही होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि कुछ लोगो ने अपनी रोजी रोटी के लिए इसे ही पेशा बनाया हुआ हैं लेकिन ज्यादातर लोग मजबूरीवश ही ऐसा करते हैं और ये मजबूरी हैं भूख मिटाने की। इस उम्र में जब कोई अपना ही उन्हें बेसहारा छोड़ देता हैं और शरीर भी थक जाता हैं किन्तु भूख तो मरने तक रहती ही है तो उन्हें मजबूर होकर किसी चौराहे पर बैठ कर हाथ फैलाना ही पड़ता हैं।
कई लोग जो अच्छी नौकरी व्यवसाय करते हैं और अपना जीवन सुख सुबिधाओं के बीच व्यतीत करते हैं वो अक्सर इन्हे सलाह देते हुए कहते हैं कि हम अपनी मेहनत की कमाई खाते हैं और आप भी मेहनत करके खाओ। परन्तु, इस उम्र में वो दिन दिन भर कड़ी धूप में बैठे रहते हैं, खून जमा देने वाली ठण्ड में भी वो चौराहे पर बैठे हुए ही मिलते हैं तो क्या ये मेहनत नहीं हैं? या ये मेहनत कम हैं? ये मेहनत कम तो नहीं हैं फिर भी उन्हें सिर्फ इतना ही मिल पाता हैं जिससे पेट भर सके। कई बार तो उतना भी नहीं मिलता और भूखे ही सोना पड़ता हैं।
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चलने की हिम्मत हैं उसमे
न उठने की ताकत हैं।
आराम तनिक न मिलता हैं
न जाने कौन सी आफत हैं।
इस कविता के माध्यम से जिस व्यक्ति के दर्द को रेखांकित किया जा रहा हैं वो अब इतने बुजुर्ग हो चुका हैं कि उसमे उठने और चलने कि भी हिम्मत नहीं हैं फिर भी वो आराम को मोहताज हैं। जिस उम्र में उसे आराम की जरूरत हैं उस उम्र भी वो लोग दर दर भटक रहा हैं। कई तकलीफे हैं उसे जो बुढ़ापे में सभी को होती हैं अक्सर दर्द से वो बिलखता हैं लेकिन उसे सहलाने वाला कोई नहीं हैं। कोई नहीं हैं जो उसे प्यार से दो शब्द बोलकर उसके दर्द को कम करने की कोशिश करे। चलने पर थक जाता हैं, पांव दुखने लगते हैं लेकिन उसके पांव कौन दबाएगा।
लोग उसे मंदिर और मस्जिद के अंदर भी नहीं जाने देते उसे इतना भी हक नहीं हैं कि ईश्वर को अपनी हालत दिखा सके, उनसे रहमत की भीख मांग सके। वो बस बाहर ही बैठ कर इंसानों के आगे हाथ फैलाता हैं जहां उसे कभी न्याय और सम्मान नहीं मिलता। दिन भर धूप में जलने का उसे कभी उचित पारितोषिक नहीं मिलता।
दो कदम उसे चलाने को
ना कोई हाथ बढ़ाता हैं।
वो लड़खड़ाते कदमों से
अकेला बढ़ता जाता हैं।
उसे दो कदम भी चलाने के लिए कोई बढ़कर सहारा नहीं देता। वो अकेले ही लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ता हैं। यदि गिर भी जाये तो उसे खुद ही उठना पड़ता हैं। एक लकड़ी (लाठी) ही हैं जो उसे सहारा देती हैं, किन्तु अब वो भी हाथ से फिसल जाती हैं क्योंकि हाथों में अब उतनी ताकत नहीं हैं कि वो उसकी सहायता भी ले सके।
वास्तव में कष्ट और पीड़ा से भरा उसका जीवन हमारी अमानवीयता होने का प्रमाण देती हैं। क्या अरबो की आबादी वाली दुनिया इतनी असमर्थ हैं कि इन चंद बुजुर्ग लोगो को भोजन, स्वस्थ सुबिधा और सहारा न दे सके। आज हर व्यक्ति अपना भविष्य बनाने में लगा हैं। शायद ये लोग भी कभी ऐसे ही होंगे जैसे आज हम और आप हैं किन्तु किसी परिस्थिति की वजह से इनकी ये हालत हो गई हैं।
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हम जीवन में कितनी भी तरक्की कर ले, कितना भी पैसे कमा ले लेकिन हमारा मन कभी भी नहीं भरेगा और नाहीं कभी मन को पूर्ण संतुष्टि मिलगी। लेकिन यकीन मानिये यदि हम ऐसे लोगो की किसी भी रूप में यदि थोड़ी सी भी सहायता करते हैं तो मन को पूर्ण संतुष्टि मिलती हैं। ये पूरी तरह सत्य हैं अगर आपको यकीन नहीं हैं तो किसी गरीब या भूखे को कुछ खरीद कर खाने को दीजिये आपको यकीन हो जायेगा कि मन को कितना सुख मिलता हैं।
उम्मीद करता हुँ कि इस कविता और ऊपर लिखें संक्षिप्त विवरण (लेख) को पढ़ने से आपके मन में भी इन बेसहारा लोगो के प्रति स्नेह की भावना उत्पन्न हुई होगी। ऐसी और भी कविताएं पढ़ने के लिए आप मेरी वेबसाइट www.powerfulpoetries.com पे जा सकते हैं या Home बटन पे क्लिक करके भी आप अन्य कविताएं पढ़ सकते हैं।
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